बुधवार, 30 अप्रैल 2008

ज़िंदगी के करीब 35 साल दूसरे देश पाकिस्तान के जेल में बीत गए-आसान तो नहीं होता पर कहते हैं न कि अगर किसी की याद दिल में बसा लो, तो वक़्त कट ही जाता है. या किसी चीज़ की लौ दिल में जला लो, समय निकल जाता है.

कश्मीर सिंह की डायरी पर राय भेजिए

जब-जब उदासी घिरने लगती और मन परेशान हो जाता तो मैं किताबों की आगोश में खो जाता. क़िताब का एक-एक शब्द जैसे एक-एक ज़ख़्म पर मरहम लगाने की कोशिश कर रहा हो- मन को बड़ा सुकून मिलता था.

किताब, रसाले, उपन्यास जो हाथ लगता पढ़ डालता था.

जब मैं भारत से पाकिस्तान आया था तो मेरे बच्चे बहुत छोटे थे. उनकी याद सताती थी मुझे लेकिन कुछ कर नहीं सकता था- मजबूर था.

नाज़ुक दिल आपके दर्द को और गहरा कर देता है. सो बाद में मैने ये सोचना कम कर दिया कि बच्चे क्या कर रहे होंगे क्योंकि अगर दिलो-दिमाग़ में हर वक़्त यही ख़्याल रहता तो मैं जेल में ज़िंदा बचता ही नहीं.

बस ख़ुद को यही तसल्ली देता रहा कि बच्चे जहाँ भी होंगे सही-सलामत ही होंगे.

(पाकिस्तानी जेल में 35 साल तक क़ैद रहे भारत के नागरिक कश्मीर सिंह की आख़िरी डायरी आप बीबीसी हिंदी डॉट कॉम पर अगले हफ़्ते पढ़ सकते हैं. इस लेख पर अपनी राय हमें hindi.letters@bbc.co.uk पर भी भेज सकते हैं.)

फ़रिश्ता कहूँ या अवतार...


अंसरा बर्नी ने कश्मीर सिंह की रिहाई में अहम भूमिका निभाई

जेल में रहते हुए 1988 में मुझे पक्षाघात भी हो गया. वक़्त के थपेड़ों ने तन-मन दोनों को कमज़ोर करना शुरू कर दिया था. जैसे-जैसे समय बीतता गया जेल से रिहा होने के आसार कम होते नज़र आने लगे.

ज़िंदगी जैसे-तैसे कट रही थी - किसी लंबे, रहस्यमय अंतहीन उपन्यास की कहानी के जैसी ज़िंदगी,वो कहानी जिसे शुरू करने के बाद छोड़ दिया गया हो और जिसे अपने अंजाम की तलाश हो.

उसी दौरान एक फ़रिश्ता आया मेरे जीवन में- अंसार बर्नी. उनसे मिलने के बाद हालात ने अजब तरीके से करवट बदले और जो कुछ भी अच्छा हुआ वो पाकिस्तान के पूर्व मानवाधिकार मामलों के मंत्री अंसार बर्नी की ही मेहरबानी है.

मेरे लिए तो वे अवतार बनकर आए- भगवान कहिए, वाहे गुरु कहिए या अल्लाह समझ लो.

वर्ष 2008 के जनवरी महीने में बर्नी साहब जेल का दौरा करने आए. अंसार बर्नी मेरी चक्की भी आए. चक्की मतलब वो क्वार्टर जहाँ मैं बंद था.

क़ैदियों से पूछा गया कि हमारी सज़ा कितने साल की है. उसी दौरान मैने बताया कि सज़ा-ए-मौत सुनाए हुए मुझे 30 से ज़्यादा साल हो गए हैं.

अंसार बर्नी ने बस इतनी बात सुनी और मेरा नाम लिखकर ले गए. मेरा ही नहीं, वहाँ जितने भी क़ैदी थे जिनकी सज़ा को 10 साल हो चुके थे, वे सबका नाम ले गए.

इन 14 लोगों में सरबजीत सिंह का नाम भी शामिल था. पाकिस्तान के राष्ट्रपति के पास माफ़ीनामी के लिए अपील गई. उन्हें बताया गया कि मैं 35 साल से यहां बंद हूँ.

पिछले 35 सालों से समय का पहिया जैसे मेरे लिए रुका हुआ था. फिर चंद ही महीनों में समय का चक्का ऐसा सरपट दौड़ा कि अभी तक उससे कदमताल करने की कोशिश में जुटा हूँ.

बर्नी साहब से मिलने के कुछ महीनों के अंदर ही मेरी कोठी तोड़ दी गई..आपकी भाषा में बोलूँ तो पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने मुझे रिहा करने का आदेश दे दिया.

पंछी बनूँ उड़ता फिरूँ मस्त गगन में


कश्मीर सिंह की पत्नी और बेटे ने बरसों उनका इंतज़ार किया

तीन दशकों तक मैने काल-कोठरी के अंधेरे में तन्हा जीवन बिताया था. इतने सालों बाद जब बाहर क़दम रखा तो आँखों को चौंधियाती रोशनी मिली, नीला आसमां देखा, आसमां में उड़ते पंछी देखे. खुली हवा में साँस लेने को मिला तो ऐसा महसूस हुआ कि मैं बस अभी-अभी पैदा हुआ हूँ....इसके आगे सोचने-समझने का मन भी नहीं था मुझे,शब्द गौण हो गए थे.

भगवान ने मुझे नई ज़िंदगी दी थी, जेल से निकलकर मैं गुरुद्वारे गया और मत्था टेका.

रात एक आलीशान होटल में बिताने को मिली..मन में उत्सुकता थी. तीन मार्च 2008 को मैं रिहा हुआ और चार मार्च को मुझे बड़ी इज़्ज़त के साथ वाघा बॉर्डर पर छोड़ दिया गया.

बाक़ायदा मेरा पासपोर्ट बनाया गया था. मुझे पाकिस्तानी पुलिसवालों के हवाले नहीं किया गया. सीधा भारत भेज दिया गया अपने परिवार के पास-जैसे किसी भी व्यक्ति को भेजा जाता है जो पासपोर्ट के ज़रिए यहाँ से वहाँ जाता है..अदब से.

भारत-पाक सीमा पर देखा तो टीवी चैनलों और पत्रकारों का हुजूम उमड़ा हुआ था..अचानक मैं उनकी नज़रों में ‘अहम’ शख़्स बन गया, हर कोई इंटरव्यूह लेना चाहता था.

कुछ देर के लिए रब्ब ने मुझे एक ऐसी ऊँचाई पर ज़रूर पहुँचाया दिया था जहाँ लगे कि आप बड़ी हस्ती हैं लेकिन मैं इस सब के काबिल नहीं हूँ.

ख़ैर भारत की सीमा में क़दम रखा तो आँखें अपने नन्हे मुन्ने बच्चों को तलाश रही थीं. जब जेल में था तो हमेशा मन में यही तस्वीर रहती थी कि एक दिन जब वापस आऊँगा तो मेरे बच्चे मुझे वैसे ही मिलेंगे जैसा मैं उन्हें छोड़कर आया था. और अब जब भारत लौटा हूँ तो बच्चे वैसे ही मिल भी गए हैं.

बस फ़र्क यही है कि मैं दो बेटे छोड़ कर गया था, अब वापस आया हूँ तो जिस उम्र के बेटे छोड़ कर गया था अब उसी उम्र के पोते मिल गए हैं. एक बेटी थी पहले मेरी पर अब चार बेटियाँ और मिल गई हैं- मेरी दो बहुएँ और दो पोतियाँ भी तो बेटियों समान हैं.

एक बेटा मेरे साथ अब गाँव में ही रहता है. वहीं दूसरा बेटा इटली में काम करने गया हुआ है. मुझे मिलने वो इटली से भारत आया था कुछ दिन पहले. हम दोनों ने एक दूसरे से मुलाक़ात की.

लेकिन पता नहीं क्यों इटली वापस जाते समय न वो मुझसे मिलने आया न मैं उससे मिला...... वो एक-दो रोज़ मुझसे मिला लेकिन फिर मिलना शायद उसे पसंद न आया हो. बहुत सारी बातें अनकही-अनसुलझी रह गई.

मेरी बिटिया रानी भी इटली में रहती है और जून में अपने बेटे के इम्तिहान के बाद मुझसे मिलने आएगी. मुझे इंतज़ार रहेगा....

(अगली बार डायरी की आख़िरी कड़ी में ज़िक्र उन भारतीय क़ैदियों का जिन्हें मैने पाकिस्तानी जेल में देखा है, बात अपने गाँव में आने के बाद के अनुभवों की और वहाँ अपनी पुरानी पहचान तलाश कर रहे कश्मीर सिंह की)

(35 साल पाकिस्तान की जेल में बिताने के बाद कश्मीर सिंह चार मार्च 2008 को अपने वतन लौटे हैं. कश्मीर सिंह के जीवन के अनुभवों पर आधारित यह श्रृंखला बीबीसी संवाददाता वंदना से उनकी बातचीत पर आधारित है. इस डायरी की आख़िरी कड़ी आप अगले हफ़्ते पढ़ पाएँगे)

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2008

२५ प्रतिशत शेयर सार्वजनिक किए जाने का फैसला जायज़



सत्येन्द्र प्रताप सिंह
वित्त मंत्रालय एक प्रस्ताव लाया है। बाजार में शेयर लाने से पहले कंपनियों पर कम से कम एक चौथाई शेयर सार्वजनिक करने की शर्त तय की जाए। मंत्रालय का मानना है कि संस्थागत निवेशकों, कर्मचारियों औऱ प्रवासी भारतीयों को शेयर बेचकर सार्वजनिक शेयर की खानापूर्ति नहीं होनी चाहिए।
यह सही है कि कंपनियां बाजार में उतरने के पहले कृत्रिम बढ़त बनाने की कोशिश करती हैं, जिससे आम निवेशकों की भीड़ को खींचा जा सके। इस कोशिश में तमाम बड़ी कंपनियां सेक्टरवाइज शेयर भी उतार देती हैं, यानी एक ही कंपनी के दो शेयर। होता यह है कि कंपनी अपने एक सेक्टर से पूंजी निकालती है और दूसरे में डाल देती है। खुद, कर्मचारियों के माध्यम से या संस्थागत निवेशकों के जरिए। बाद में ओवर सब्सक्रिप्शन देखकर जनता दौड़ती है उस कंपनी का शेयर खरीदने। इस तरह से कंपनी के आईपीओ का जलवा कायम हो जाता है। बाद में वह कंपनी धीरे-धीरे अपना पैसा खींचती है। शेयर गिरता है और आम निवेशक की तबाही शुरू हो जाती है।
अगर वित्त मंत्रालय का यह प्रस्ताव अमल में आता है तो स्वाभाविक है कि कंपनियों का गड़बड़झाला सामने आ जाएगा और वे आम निवेशकों के सामने नंगे हो जाएंगे। इससे सीधा फायदा बाजार में सीधे निवेश करने वाले निवेशकों को होगा और बाजार की घट-बढ़ चाल भी समझ में आएगी। जब कंपनी का कोई सीधा लाभ होगा या उसकी प्रगति होगी तभी शेयर के दाम बढ़ेंगे और सटोरियों, आम लोगों से पैसा लेकर निवेश करने वाले संस्थागत निवेशकों द्वारा उत्पन्न कृत्रिम बढ़त बनाने का दौर भी कम होगा।

गुरुवार, 31 जनवरी 2008

दलालों को ही सट्टा लगाने दें, आप जब भी निवेश करें, आंख कान खुला रखें।


सत्येन्द्र प्रताप सिंह
बाजार के बड़े-बड़े खिलाड़ी भी वायदा बाजार की चाल समझने में गच्चा खा जाते हैं। शेयर बाजार में पैसा लगाना, उससे मुनाफा कमाने इच्छा आज हर उस भारतीय को है जो कुछ पैसे अपनी तनखाह से बचा लेता है। बाजार गिर रहा है, बाजार चढ़ रहा है। वह देखता है, सोचता है- लेकिन क्या तमाशा है उसे समझ में नहीं आता।
आईपीओ की बात करें तो रिलायंस जैसे ही बाजार में आया उसका शेयर बारह गुना ओवर सब्सक्राइब हुआ। वास्तविक धरातल पर कंपनियों के पास कुछ हो या न हो अगर बाजार में एक बार शाख बन गई या किसी तरीके से बनाने में कामयाब रहे तो रातोंरात अरबपति और खरबपति बनते देर नहीं लगती।
शेयर का दाम भी बंबई शेयर बाजार में बेतहाशा बढ़ता है। किस तरह बढ़ता है? पता नहीं। इसका कोई ठोस आधार नहीं है। इसीलिए तो इसे वायदा कारोबार कहते हैं। आम लोगों को लगता है कि कंपनी को लाभ हो रहा है इसलिए शेयर बढ़ रहा है, लेकिन हकीकत इससे अलग है। किसी कंपनी का शेयर जनवरी में ४० रुपये का है तो फरवरी में वह ६० रुपये का हो जाता है। हालांकि कंपनी जब अपना तिमाही मुनाफा पेश करती है तो महज १०-१५ प्रतिशत लाभ दिखाती है। स्वाभाविक है शेयर भहराएगा ही। कुछ कंपनियां तमाम प्रोजेक्ट दिखाकर कृत्रिम बढ़त को सालोंसाल बनाए रखती हैं। सपने दिखाती रहती हैं और जनता से पैसा खींचती रहती हैं। अब कंपनी की दूरगामी परियोजनाओं की सफलता पर निर्भर करता है कि वे बाजार में टिकी रहती हैं या सारा पैसा लेकर रफूचक्कर हो जाती हैं। यह भी संभव है कि कृतिमता कुछ इस तरह बनाई जाए कि एक कंपनी की ३०० परियोजनाएं हों और जिसमें सबसे ज्यादा निवेश हो जाए उसे बर्बाद बता दिया जाए। बाकी के शेयरों में खुद निवेश कर कृत्रिम बढ़त बनाए रखा जाए।
इन सभी तथ्यों से आम निवेशक को हमेशा सावधान रहने की जरूरत है।
भारतीय शेयर बाजार में वर्ष 1930 में बॉम्‍बे रिक्‍लेमेशन नामक कंपनी सूचीबद्ध थी जिसका भाव उस समय छह हजार रुपये प्रति शेयर बोला जा रहा था, जबकि लोगों का वेतन उस समय दस रुपए महीना होता था। कंपनी का दावा था कि वह समुद्र में से जमीन निकालेगी और मुंबई को विशाल से विशाल शहर में बदल देगी लेकिन हुआ क्‍या। कंपनी दिवालिया हो गई और लोगों को लगी बड़ी चोट। अब यह लगता है कि अनेक रियालिटी या कंसट्रक्‍शंस के नाम पर कुछ कंपनियां फिर से इतिहास दोहरा सकती हैं। आप खुद सोचिए कि ऐसा क्‍या हुआ कि रातों रात ये कंपनियां जो अपने आप को करोड़ों रुपए की स्‍वामी बता रही हैं, आम निवेशक को अपना मुनाफा बांटने आ गईं।
इसमें किसी भी तरह का फ्राड संभव है और ऐसा न हो कि बरबादी के बाद रोने पर आंसू भी न आए। हमेशा ठोस परियोजनाओं और ठोस कारोबार की ओर नजर रखें और लाभ के चक्कर में किसी एक कंपनी में बहुत ज्यादा निवेश न करें। इसी में भलाई है।